अंधेरों के ख़िलाफ़
**************
प्रारम्भ में
एक मिट्टी का दिया
जला होगा
जो अंधेरों से लड़ता हुआ
उजाले को दूर दूर तक
फैलाता रहा होगा
फिर
संवेदनाओं के चंगुल में फंसकर
जनमत के बाजार में
नीलाम होने लगा
जूझता रहा आंधियों से
लेकिन
नहीं ख़त्म होने दी
अपनी टिमटिमाहट
उजाला
फूलों की पंखुड़ियों पर
लिख रहा है
अपने होने का सच
मिट्टी का दिया
आज भी उजाले को
मुट्ठियों में भर भर कर
घर घर पहुंचा रहा है
ताकि मनुष्य
लड़ सकें
अंधेरों के ख़िलाफ़---
◆ज्योति खरे
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें