रविवार, अक्तूबर 05, 2014

हादसों के घाव से रिस रहे खून------


रौशनियों की चकाचौंध में
उत्साह से भरा उत्सव
चमचमाता उल्लास
अचानक
अंधाधुंध भागते पैरों के तले
कुचल जाता है ----
 
ऐसा क्या हो जाता है
कि भीड़ अपनी पहचान मिटाती
भगदड़ का रुप ले लेती है
और समूचा वातावरण
मासूम, लाचार और द्रवित हो जाता है----
 
कुछ तो है
जिसके नेपथ्य में
अदृश्य इशारे
हादसों की कहानी गढ़ते हैं
और हमारी तमाम सचेतनाओं के बावजूद
हमारी तलाश से परे हैं
इनकी खामोश भूमिका
जीवन मूल्यों के टकराव का
शंखनाद करती हैं ----
 
हम आसमान को गिरते समय 
टेका लगाकर
धराशायी होने से बचाने वाले
और
हादसों के घाव से रिस रहे खून को
पोंछने वाले
खानदानी परिवार के सदस्य हैं ----
                                            
                                                 "ज्योति खरे"
 चित्र गूगल से साभार