बारिश थम गयी
सड़कों का पानी सूख गया
घर का आंगन
अभी तक गीला है
मां के आंसू बहे हैं
कितनी मुश्किलों से खरीदा था
ईंट ,सीमेंट ,रेत
उस साल बाबूजी बेच कर आये थे पुश्तैनी खेत
सोचा था
शहर के पक्के घर में
सब मिलकर हंसी ठहाके लगायेंगे
तीज-त्यौहार में
सजधज कर बहुऐं चहकेंगी
घर बनते ही सबने
आँगन और छत पर
गाड़ ली हैं अपनी अपनी बल्लियाँ
बांध रखे हैं अलग अलग तार
तार पर फेले सूख रहे हैं
अलग अलग किरदार
इतिहास सा लगता है
कि, कभी चूल्हे में सिंकी थी रोटियां
कांसे की बटलोई में बनी थी
राहर की दाल
बस याद है
आया था रंगीन टीवी जिस दिन
करधन,टोडर,हंसली
बिकी थी उस दिन
बर्षों बीत गये
चौके में बैठकर
नहीं खायी बासी कढ़ी और पुड़ी
बेसन के सेव और गुड़ की बूंदी
अब तो हर साल
बडी़ और अचार में भी
लग जाती है फफूंदी
औपचारिकता निभाने
दरवाजे खुले रखते हैं
एक दूसरे को देखकर
व्यंग भरी हँसी हंसते हैं
बारिश थम गयी
सड़कों का पानी सूख गया
घर का छत
अभी तक गीला है
माँ बाबूजी रो रहे हैं--------
"ज्योति खरे"
6 टिप्पणियां:
वाह लाजवाब
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 4 सितंबर 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
मर्मस्पर्सी चित्रण।
कौन देख पाया होगा उन सुखी आंखों के कौर पर हमेशा डेरा डाले आंसुओं को।
मर्मस्पर्शी
दिल को छूते हुए ...
आपकी कलम हमेशा कमाल कर जाती है ...
इतिहास सा लगता है
कि, कभी चूल्हे में सिंकी थी रोटियां
कांसे की बटलोई में बनी थी
राहर की दाल
बस याद है
जबरदस्त
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