शुक्रवार, फ़रवरी 01, 2019

सुना है

धुंधली आंखें भी
पहचान लेती हैं
भदरंग चेहरे
सुना है
इन चेहरों में
मेरा चेहरा भी दिखता है--

गुम गयी है
व्यवहार की किताब
शहर में
सुना है
गांव के कच्चे घरों में
अपनापन
आज भी रिसता है--
   
इस अंधेरे दौर में
जला कर रख देती है
बूढ़ी दादी
लालटेन
सुना है
बूढ़ा धुआं
दर्द अपना लिखता है--

नीम बरगद के भरोसे
झूलती हुई झूला
उड़ रही है आकाश में
गांव की खिलखिलाती
लड़कियाँ
सुना है
प्यार की चुनरी के पीछे
चांद
आकर छिपता है--

"ज्योति खरे"

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

बेहद भावपूर्ण रचना, आभार.

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह हमेशा की तरह सुन्दर भाव।