रविवार, जून 16, 2019

पापा

अँधेरों को चीरते
सन्नाटे में
अपने से ही बात करते पापा
यह सोचते थे कि
कोई उनकी आवाज नहीं सुन रहा होगा

मैं सुनता था

कांच के चटकटने सी
ओस के टपकने सी
शाखाँओं को तोड़ने सी
दुखों के बदलों के बीच में से
सूरज के साथ सुख के आगमन सी
इन क्षणों में पापा
व्यक्ति नहीं समुद्र बन जाते थे

उम्र के साथ
पापा ने अपनी दिशा और दशा बदली
पर नहीं बदले पापा
भीतर से
क्योंकि
उनके जिन्दा रहने का कारण
आंसुओं को अपने भीतर रखने की जिद थी

पापा
जीवन के किनारे खड़े होकर
नहीं सूखने देते थे
कामनाओं का जंगल
उड़ेलते रहते थे
अपने भीतर का मीठा समुद्र

आंसुओं को समेटकर
अपने कुर्ते में रखने वाले पापा
अमरत्व के वास्तविक हकदार थे

पापा
आज भी
दरवाजे के बाहर खड़े होकर
सांकल खटखटाते हैं---

" ज्योति खरे "

8 टिप्‍पणियां:

रेणु ने कहा…

कामनाओ के उपवन के बागबान और भीतर मीठा समुद्र समेटे पापा!!! कितनी खूबियां हो सकती हैं एक पिता में, शायद ये कोई भी नहीं जान पाता, तब भी नहीं जब वो खुद पिता बन जाता है,क्यों कि हर सन्तान के लिए अपनेपिता का वज़ूद इतना विशाल होता है कि वो वहाँ तक पहुंचने की नहीं सोच सकता। एक पिता की अनगिन विशेषताओं को समेटे अत्यंत भावपूर्ण रचना आदरणीय सर। पिताजी की पुण्य स्मृति को कोटि नमन। 🙏🙏🙏🙏

रेणु ने कहा…

कामनाओ के उपवन के बागबान और भीतर मीठा समुद्र समेटे पापा!!! कितनी खूबियां हो सकती हैं एक पिता में, शायद ये कोई भी नहीं जान पाता, तब भी नहीं जब वो खुद पिता बन जाता है,क्यों कि हर सन्तान के लिए अपनेपिता का वज़ूद इतना विशाल होता है कि वो वहाँ तक पहुंचने की नहीं सोच सकता। एक पिता की अनगिन विशेषताओं को समेटे अत्यंत भावपूर्ण रचना आदरणीय सर। पिताजी की पुण्य स्मृति को कोटि नमन। 🙏🙏🙏🙏

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

हाँ सही कहा । दरवाजे के बाहर खड़े होकर सांकल खटखटाते हैं। पापा हैं आसपास रोज आते हैं।

Jyoti khare ने कहा…

आभार आपका

Jyoti khare ने कहा…

आभार आपका

Sweta sinha ने कहा…

बेहद भावपूर्ण.. मन के सारे टूटे सिरोंं को जोड़ती सराहनीय अभिव्यक्ति सर👌

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (18-06-2019) को "बरसे न बदरा" (चर्चा अंक- 3370) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

राजीव उपध्याय ने कहा…

पापा
आज भी
दरवाजे के बाहर खड़े होकर
सांकल खटखटाते हैं। बहुत ही भावपूर्ण कविता। पिता की मनः स्थिति का आपने संजीदा बयान किया है।