मंगलवार, नवंबर 27, 2012

रिश्ते जमीन के---------

बिखरे पड़े हैं क़त्ल से
रिश्ते जमीन के-----
मुखबिर बता रहे हैं
किस्से यकीन के------

चाहतों के मकबरे पर
शाम से मजमा लगा है
हाथ में तलवार लेकर
कोई तो दुश्मन भगा है

गश्त दहशत की लगी है
किस तरह होगी सुबह
खून के कतरे मिले हैं
फिर से कमीन के-------

चाँद भी शामिल वहां था
सूरज खड़ा था साथ में
चादर चढ़ाने प्यार की
ईसा लिये था हाथ में

जल रहीं अगरबत्तियां
खुशबू बिखेरकर
रेशमी धागों ने बांधे
रिश्ते महीन के-------

           "ज्योति खरे"

(उंगलियां कांपती क्यों हैं------से )

 

शुक्रवार, नवंबर 23, 2012

गालियां देता मन ......

गालियां देता मन
देह्शत भरा माहौल
चुप्पियां दरवाजा
बंद करेंगी
खिडकियां देंगी खोल-----

आदमी की
खाल चाहिये
भूत पीटें डिडोरा---
मरी हुई कली का
खून चूसें भौंरा---

कहती चौराहे की
बुढ़िया
मेरे जिस्म का
क्या मोल-------

थर्मामीटर
नापता
शहर का बुखार---
एकलौते लडके का
व्यक्तिगत सुधार---

शामयाने में
तार्किक बातें
सड़कों में बजता
उल्टा ढोल---------
          
         "ज्योति खरे"
( उंगलियां कांपती क्यों हैं-----से )
  
      

सोमवार, नवंबर 05, 2012

करवा चौथ का चाँद उसी दिन रख दिया था हथेली पर

करवा चौथ का चाँद
उसी दिन रख दिया था
हथेली पर तुम्हारे
जिस दिन
मेरे आवारापन को
स्वीकारा था तुमने---------

सूरज से चमकते गालों पर
पपड़ाए होंठों पर
रख दिये थे 
कई कई चाँद----
बदतमीज़ कहते
भाग रही थी तुम
पकड़ लिया था
चुनरी का कोना
झीना,झपटी में
फट गया कोना-----

करवा चौथ का चाँद
उसी दिन रख दिया था
हथेली पर तुम्हारे
जिस दिन---
विरोधों के बावजूद
ओढ़ ली थी तुमने
उधारी में खरीदी
मेरे अस्तित्व की चुनरी--------

अब
अपने प्रेम के आँगन में
खड़ी होकर
आटे की चलनी से
क्यों देखती हो चाँद-------

तुम्हारी मुट्ठी में कैद है
तुम्हारा चाँद--------
                  "ज्योति खरे"

(उंगलियां कांपती क्यों हैं-----से )  

 

शुक्रवार, अक्टूबर 19, 2012

रेत

रेत
तुमसे बात करना
तुम्हे मुट्ठी में भरना
तुम्हारी भुरभुरी छाती पर
उँगलियों से नाम लिखना
बहुत भाता है
तुमसे कई जन्मों का नाता है-------

रेत
अपनी लगती हो तुम
चिपक जाती हो
खुरदुरी देह पर
भर जाती हो 
खली जेब में-------

रेत
कल्पनाओं की जमीन पर बना
अहसास का घरौंदा हो
सहयोग से ही तुम्हारे
बनते हैं पदचिन्ह
नहीं मिटाती तुम
अपनी चमकीली देह पर बने
 उंगलियों के निशान--------

रेत
अपनी संगठित परत में
समा लो
जीवन की नदी में
अपने साथ बहा लो---------
                "ज्योति खरे"
(उंगलियाँ कांपती क्यों हैं---से )
 



शनिवार, सितंबर 29, 2012

प्रेम की कविता------

प्रेम कविता-------

तुम सोचती होगी
तुम्हारे भीतर
जो कुछ कांपता है
वह क्या मेरे भीतर भी कांपता होगा---

बहुत देर तक कांपता हूँ
जब पास होता हूँ तुम्हारे
बैठता हूँ चट्टान पर
पांव रेत में
उंगलियाँ तुम्हारी देह पर---

मन कगार तक पहुँच कर
अपना सर पटकता है
उखड्ती सांसों में 
अन्तस्थल में कहीं
अनहोनी का भय कांपता है ---

क्या तुम भी
अनहोनी के भय से कांपती हो
मुझे लगता है
तुम मेरे भीतर ही कहीं हो
जब भी में
यह सोचता हूँ
पाता हूँ तुम्हे अपने भीतर
पहुँच जाता हूँ तुम्हारे तीर पर
संगम रचने---------
         "ज्योति खरे"     

शनिवार, अगस्त 04, 2012

भूख से बेहाल बच्चे को

बिक गयी बज़ार में हजारों टन मिठाई
एक टुकड़ा भी नहीं हुआ नसीब
भूख से बेहाल बच्चे को
बीनता है पन्नी हमारे घरों के करीब......
                            "ज्योति खरे "