नहीं रख पाते
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खिलखिलाती
बरसात
नहला देती है
पसीने से सनी धूप को
उतरकर दीवारों के सहारे
घुस जाती है
घर के भीतर
भर देती है
मौन संबंधों में संवाद
फिर छत पर बैठकर
गाती है युगल गीत
बरसात
कर देती है
मुरझा रहे प्रेम को
तरबतर
लेकिन हम
सहेजकर रख लेते हैं छतरी
नहीं रख पाते
सहेजकर
बरसात---
◆ज्योति खरे
1 टिप्पणी:
वाह
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