नहीं रख पाते
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खिलखिलाती
बरसात
नहला देती है
पसीने से सनी धूप को
उतरकर दीवारों के सहारे
घुस जाती है
घर के भीतर
भर देती है
मौन संबंधों में संवाद
फिर छत पर बैठकर
गाती है युगल गीत
बरसात
कर देती है
मुरझा रहे प्रेम को
तरबतर
लेकिन हम
सहेजकर रख लेते हैं छतरी
नहीं रख पाते
सहेजकर
बरसात---
◆ज्योति खरे
6 टिप्पणियां:
वाह
आहा ... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति सर।
लाज़वाब।
पतझड़ के इर्द-गिर्द बसी दुनिया
बारिश के एहसास जी नहीं पाती
छतरी में छुपाकर ख़ुद को
अपने हिस्से बारिश
मन भर जी नहीं पाती...।
सुंदर अहसास
आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
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