गुरुवार, जुलाई 04, 2019

सावधान हो जाओ

बादल दहाड़ते आते हैं
बिजली
बार-बार चमककर
जीवन के
उन अंधेरे हिस्सों को दिखाती है
जिन्हें हम अनदेखा कर
अपनी सुविधानुसार जीते हैं
और सोचते हैं कि,
जीवन जिया जा रहा है बेहतर

बादल बिजली का यह खेल
हमें कर रहा है सचेत और सर्तक
कि, सावधान हो जाओ
आसान नहीं है अब
जीवन के सीधे रास्ते पर चलना

लड़ने और डटे रहने के लिए
एक जुट होने की तैयारी करो

बेहतर जीवन जीने के लिए
पार करना पड़ेगा
बहुत गहरा दलदल ----

"ज्योति खरे"

सोमवार, जुलाई 01, 2019

दाई से क्या पेट छुपाना


रुंधे कंठ से फूट रहें हैं
अब भी
भुतहे भाव भजन--

शिवलिंग,नंदी,नाग पुराना
किंतु झांझ,मंजीरे,ढोलक
चिमटे नये,नया हरबाना
रक्षा सूत्र का तानाबाना

भूखी भक्ति,आस्था अंधी
संस्कार का
रोगी तन मन---

गंग,जमुन,नर्मदा धार में
मावस पूनम खूब नहाय
कितने पुण्य बटोरे
कितने पाप बहाय

कितनी चुनरी,धागे बांधे
अब तक
भरा नहीं दामन---

जीवन बचा हुआ है अभी
एक विकल्प आजमायें
भू का करें बिछावन
नभ को चादर सा ओढें
और सुख से सो जायें

दाई से क्या पेट छुपाना
जब हर
सच है निरावरण-------

"ज्योति खरे"

रविवार, जून 23, 2019

रिक्शे वाला

रिक्शे वाला
********
मैं न प्रेमी हूं
न आशिक हूं
न मंजनू हूं
न दीवाना हूं
मेरा काम है
सुबह से सड़कोँ पर
मनुष्य की मनुष्यता को ढ़ोना
रोज कमाना
रोज खाना

शाम को बैठ जाता हूँ
शहर की सूखती नदी के किनारे
करता हूँ नदी से ढेर सारी बातेँ
समझाता हूं उसे
बहती रहो
तुम इस सदी में तो नहीं सूखोगी
क्योंकि, तुम बहाकर ले जाती हो दुख
और दिनभर की जहरीली बातेँ.

सोता हूँ खुले आसमान के नीचे
देखता हूँ सपनीले सपने
सपने मेँ तलाशता हूँ
शायद कभी कोई मिल जाए अपना

यदि किसी मेँ जीवित हो थोड़ी सी भी संवेदना और हो मुझसे मिलने की ललक
तो किसी भी चौराहे पर चले आना
मेरी पहचान है
रिक्शे वाला

आटो के इस दौर में
मुझे कम लोग पहचानते हैँ
अगर पहचान जाओ
तो महरबानी आपकी

कभी कभी
लोग आते हैं
प्रेम भरी बातें करतें हैं
महगाई के इस दौर मेँ भी
मैं प्रेम के धोके में फंस जाता हूं
उनकी बातों में उलझ जाता ह़ू
क्योंकि
मोलभाव करके ही
मेरी पीठ पर बैठकर लोग
गंतव्य की ओर
जाना पसंद करते हैं ---  

"ज्योति खरे "

गुरुवार, जून 20, 2019

मुजफ्फरपुर से

आसमान में गूंजती
मुजफ्फरपुर के बच्च्चों की
दर्दनाक चीखें
रोते हुए घर से निकली
सकरी गली से गुजरती
शासकीय अस्पताल में आकर
एक दूसरे से मिली

कांपती, सिसकती
मासूम बच्चों की सांसें
न जाने कितने घंटे, दिन
अपने बचे रहने के लिए
गिड़गिड़ाने लगीं

बच्चों की कराह को अनसुना कर
नयी योजनाओं को लागू करने का
फोटो खिंचवाते समय
स्वांग रचते रहै
हमारे नेता

अब कोई इन बच्चों के करीब आता है
छू कर महसूसता है इनका दर्द
छनछना जाती हैं आंखें
बूंदें टपक कर
बिखेर देती हैं जमीन पर
सारी अव्यवस्थायें
कि, देखो
बच्चों के रिसते हुए खून पर
राजनीति करने वाले
संसद में बैठकर
बच्चों की मौत का मातम मनायेंगे

अभी- अभी खबर मिली है
कि, मौत से जूझते बच्चों के चेहरों पर
चाहतों की आंखें बिछ गयी हैं

मुस्तैद हो गयी हैं
कैमरों की आंखें
खींच रही हैं फोटो
पहले नेगेटिव फिर पाजिटिव
निगेटिव, पाजिटिव के बीच
फैले गूंगेपन में
चीख रहैं हैं बच्चे
चीख रहा है
मुजफ्फरपुर
बेआवाज़

फोटो गवाह है कि
मुजफ्फरपुर चीख रहा है
देश चीख रहा है
गूंगी फोटो
अखबार के मुखपृष्ठ पर चीख रही है

चीखती रोती बिलखती
मायें
अपने बाहर निकलते कलेजे को थामें
हर आगंतुक के सामने
आंचल फैलाए
चीख रहीं हैं
पूंछ रही हैं
क्या ? कोई
बच्चों को जिंदा रखने का
उपाय बतायेगा--

"ज्योति खरे"

रविवार, जून 16, 2019

पापा

अँधेरों को चीरते
सन्नाटे में
अपने से ही बात करते पापा
यह सोचते थे कि
कोई उनकी आवाज नहीं सुन रहा होगा

मैं सुनता था

कांच के चटकटने सी
ओस के टपकने सी
शाखाँओं को तोड़ने सी
दुखों के बदलों के बीच में से
सूरज के साथ सुख के आगमन सी
इन क्षणों में पापा
व्यक्ति नहीं समुद्र बन जाते थे

उम्र के साथ
पापा ने अपनी दिशा और दशा बदली
पर नहीं बदले पापा
भीतर से
क्योंकि
उनके जिन्दा रहने का कारण
आंसुओं को अपने भीतर रखने की जिद थी

पापा
जीवन के किनारे खड़े होकर
नहीं सूखने देते थे
कामनाओं का जंगल
उड़ेलते रहते थे
अपने भीतर का मीठा समुद्र

आंसुओं को समेटकर
अपने कुर्ते में रखने वाले पापा
अमरत्व के वास्तविक हकदार थे

पापा
आज भी
दरवाजे के बाहर खड़े होकर
सांकल खटखटाते हैं---

" ज्योति खरे "

मंगलवार, जून 04, 2019

ईद मुबारक


सुबह से
इंतजार है
तुम्हारे मोगरे जैसे खिले चेहरे को
करीब से देखूं
ईद मुबारक कह दूँ
पर तुम
शीरखुरमा, मीठी सिवईयाँ
बांटने में लगी हो

मालूम है
सबसे बाद में
मेरे घर आओगी
दिनभर की थकान उतारोगी
बताओगी
किसने कितनी ईदी दी

तुम
बिंदी नहीं लगाती
पर मैं
इस ईद में
तुम्हारे माथे पर
गुलाब की पंखुड़ी
लगाना चाहता हूं

मुझे नहीं मालूम
तुम इसे
प्रेम भरा बोसा समझोगी
या गुलाब की सुगंध का
आत्मीय अहसास
या ईदी

अब जो भी हो
प्रेम तो जिन्दा रखना है
अपन दोनों को ----

"ज्योति खरे"

रविवार, जून 02, 2019

सावित्री का प्रेम आज भी जिंदा है-----


डंके की चोट पर
ऐंठ कर पकड़ ली
मृत्यु के देवता की कालर
विद्रोह का बजा दिया बिगुल 
निवेदनों की लगा दी झड़ी

गहरे धरातल से
खींच कर ले आयी
अपने प्रेम को
अपनी आत्मा को

बांध कर कच्चा सूत
बरगद की पीठ पर
ले गयी अपनी आत्मा को
सपनों की दुनियां से परे
नफरतों के वास्तविक गारे से बनी
कंदराओं में

अपने पल्लू में लपेटकर
ले आयी
शाश्वत प्रेम को

सावित्री होने का सुख
कच्चे सूत में पिरोए
पक्के मोतियों जैसा
होता है---------

"ज्योति खरे"