गीत-----सूख रहे आंगन के पौधे----------
घर में जबसे अपनों ने
अपनी अपनी राह चुनी
चाहत के हर दरवाजे पर
मकड़ी ने दीवार बुनी............
लौटा वर्षों बाद गाँव में
सहमा सा चौपाल मिला
बाबूजी का टूटा चश्मा
फटा हुआ रुमाल मिला
टूट रही अम्मा की सांसे
कानो ने इस बार सुनी..........
मंदिर की देहरी पर बैठी
दादी दिनभर रोती हैं
तरस रहीं अपनेपन को
रात रात नहीं सोती हैं
बैठ बैठ कर यहाँ वहां
बहुयें करती कहा सुनी..........
दवा दवा चिल्लाते दादा
खांसी रोक नहीं पाते
बडे बड़ों की क्या बतायें
बच्चे भी पास नहीं आते
सूख रहे आँगन के पौधे
दीमक ने हर डाल घुनी..........
"ज्योति खरे"