चाँद तो मैंने
उसी दिन रख दिया था
हथेली पर तुम्हारे
जिस दिन
मेरे आवारापन को
स्वीकारा था तुमने--
उसी दिन रख दिया था
हथेली पर तुम्हारे
जिस दिन
मेरे आवारापन को
स्वीकारा था तुमने--
सूरज से चमकते गालों पर
पपड़ाए होंठों पर
रख दिये थे मैंने
कई कई चाँद----
चाँद तो
उसी दिन रख दिया था
हथेली पर तुम्हारे
जिस दिन
तमाम विरोधों के बावजूद
ओढ़ ली थी तुमने
उधारी में खरीदी
मेरे अस्तित्व की चुन्नी--
और अब
क्यों देखती हो
प्रेम के आँगन में
खड़ी होकर
आटे की चलनी से
चाँद----
तुम्हारी तो मुट्ठी में कैद है
तुम्हारा अपना चाँद----
"ज्योति खरे"
चित्र - गूगल से साभार