देखते,सुनते,झगड़ते चौंतीस वर्ष
हो गये
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तुम्हारे मेंहदी रचे हाथों में
रख दी थी मैंने
अपनी भट्ट पड़ी हथेली
और तुमने
महावर लगे पांव
रख दिये थे
मेरे खुरदुरे आंगन में
साझा संकल्प लिया था
कि,बढेंगे मंजिल की तरफ एक साथ
सुधारने लगे खपरैल छत
जिसमें
गर्मी में धूप
छनकर नहीं
सूरज के साथ उतर आती थी
बरसात बिना आहट के
सीधे कमरे में बरस जाती थी
कच्ची मिट्टी के घर को
बचा पाने की विवशताओं में
पसीने की नदी में
फड़फड़ाते तैरते रहे
फासलों को हटाकर
अपने सदियों के संकल्पित
सपनों की जमीन पर लेटकर
प्यार की बातें करते रहे
अपन दोनों
साझा संकल्प तो यही लिया था
कि,मार देंगे
संघर्ष के गाल पर तमाचा
और जीत के जश्न में
हंसते हुए
एक दूसरे में
डूब जायेंगे
अपन दोनों---