आजकल वह घर नहीं आती
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धूप चटकती थी तब
लाती थी तिनके
घर के किसी सुरक्षित कोने में
बनाती थी अपना
शिविर घर
जन्मती थी चहचहाहट
गाती थी अन्नपूर्णा के भजन
देखकर आईने में अपनी सूरत
मारती थी चोंच
अब कभी कभार
भूले भटके
आँगन में आकर
देखती है टुकुर मुकुर
खटके की आहट सुनकर
उड़ जाती है फुर्र से
शायद उसने धीरे धीरे
समझ लिया
आँगन आँगन
जाल बिछे हैं
हर घर में
हथियार रखे हैं
तब से उसने
फुदक फुदक कर
आना छोड़ दिया है---
◆ज्योति खरे