प्रेम कविता-------
तुम सोचती होगी
तुम्हारे भीतर
जो कुछ कांपता है
वह क्या मेरे भीतर भी कांपता होगा---
बहुत देर तक कांपता हूँ
जब पास होता हूँ तुम्हारे
बैठता हूँ चट्टान पर
पांव रेत में
उंगलियाँ तुम्हारी देह पर---
मन कगार तक पहुँच कर
अपना सर पटकता है
उखड्ती सांसों में
अन्तस्थल में कहीं
अनहोनी का भय कांपता है ---
क्या तुम भी
अनहोनी के भय से कांपती हो
मुझे लगता है
तुम मेरे भीतर ही कहीं हो
जब भी में
यह सोचता हूँ
पाता हूँ तुम्हे अपने भीतर
पहुँच जाता हूँ तुम्हारे तीर पर
संगम रचने---------
"ज्योति खरे"