बसंत तुम लौट आये
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अच्छा हुआ
इस सर्दीले वातावरण में
तुम लौट आये हो
सुधर जाएगी
बर्फीले प्रेम की तासीर
मौसम की नंगी देह पर
जमने लगेगी
कुनकुनाहट
लम्बे अवकाश के बाद
सांकल के भीतर से
आने लगेंगी
खुसुर-फुसुर की आवाजें
गर्म सांसों की
सनसनाहट से
खिसकने लगेंगी रजाई
दिनभर इतराती
धूप
चबा चबा कर
खाएगी
गुड़ की पट्टी
राजगिर की लैय्या
और तिलि के लड्डू
वाह!! बसंत
कितने अच्छे हो तुम
जब भी आते हो
प्रेम में
सुगंध भरकर चले जाते हो---
" ज्योति खरे "