डूबते सूरज को
उठाकर ले आया हूं--
कि बाकी है
घुप्प अंधेरों के खिलाफ
कि बाकी है
साजिशों की
काली चादर से ढकीं
साजिशों की
धूप सा चमकना-
कि बाकी है
उजली सलवार कमीज़ पहनकर
नंगों की नंगई को
चीरते निकल जाना-
कि बाकी है
काली करतूतों की
काली किताब का
ख़ाक होना-
कि बाकी है
धरती पर
सुनहरी किरणों से
सुनहरी व्याख्या लिखना-
कि कुछ बाकी ना रहे
सूरज दिलेरी से ऊगो
आगे बढ़ो
हम सब तुम्हारे साथ हैं-
इंकलाब जिन्दाबाद
इंकलाब जिन्दाबाद -----
"ज्योति खरे"
चित्र साभार--गूगल