चाय की चुस्कियों के साथ
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हांथ से फिसलकर
मिट्टी की गुल्लक क्या फूटी
छन्न से बिखर गयी
चिल्लरों के साथ
जोड़कर रखी यादें
कुहरे को चीरती उभर आयीं
शहर की पुरानी गलियों में जमी मुलाकात
जब एक सुबह
खिड़कियों को खोलते समय
पास वाली सड़क पर लगे
ठेले पर
चाय की चुस्कियों के साथ
तुम्हें देखा था
चहक रहे थे तुम
तुम्हारी वह चहक
भर रही थी
मेरे भीतर की खाली जगहों को
उन दिनों मैं भी
चहकने लगी थी
चिड़ियों की तरह
जब गर्म चाय को फूंकते समय
तुम्हारे होंठ से
निकलती थी मीठी सी धुन
मैं उन धुनों को सुनने
आना चाहती थी तुम्हारे पास
तुम्हारी आंखें भी तो
खिड़की पर खोजती थी मुझे
फिर
आखों के इशारे से
तुम्हारे चेहरे पर खिल जाते थे फूल
दिन में कई बार खोलती खिड़की
और देखती
कि तुम्हारे चेहरे पर
खिले हुए फूल
चाय के ठेले के आसपास तो
नहीं गिरे हैं
टूटी हुई गुल्लक को
समेटते समय
तुम फिर याद आ रहे हो
तुम भी तो
याद करते होगे मुझे
खिंच रहीं
काली धूप की दीवारों के दौर में
कभी मिलेंगे हम
जैसे आपस में
खेतों को मिलाती हैं मेड़
मुहल्लों को मिलाती हैं
पुरानी गलियां
और बन जाता है शहर
एक दिन
तुम जरूर आओगे
उसी जगह
जहां पीते थे
चुस्कियां लेकर चाय
और मैं
खिड़कियां खोलकर
करूंगी
तुमसे मिलने का ईशारा
उस दिन
तुम कट चाय नहीं
फुल चाय लेना
एक ही ग्लास में पियेंगे
और एक दूसरे की चुस्कियों से निकलती
मीठी धुनों को
एक साथ सुनेंगे
◆ज्योति खरे