बरगद जैसे फैले
बरसों जीते
चन्दन रहते
और विष पीते --
मौसम गहनों जैसा
करता मक्कारी
पूरे जंगल की बनी
परसी तरकारी
नंगे मन का भेष धरें
जीवन जीते----
उपहार मिला गुच्छा
चमकीले कांटों का
वार नहीं सहता मन
फूलों के चांटों का
हरियाली को चरते
शहरी चीते----
ठूंठ पेड़ से क्या मांगे
दे दो मुझको छाँव
दिनभर घूमें प्यासे
कहाँ चलाये नांव
नर्मदा के तट पर
धतूरा पीते-----
"ज्योति खरे"