प्रेम
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मैंने जब जब प्रेम को
हथेलियों में रखकर
खास कशीदाकारी से
सँवारने की कोशिश की
प्रेम
हथेलियों से फिसलकर
गिर जाता है
औऱ मैं फिर से
खाली हाँथ लिए
छत के कोने मैँ बैठ जाती हूँ
चांद से बतियाने
रतजगे सी जिंदगी में
सपनों का आना भी
कम होता है
जब भी आतें हैं
लिपट जाती हूँ
सपनों की छाती से
ओढ़ लेती हूं
आसमानी चादर
चांद
एक तुम ही हो
जो कभी पूरे
कभी अधूरे
दिखते हो
मिलते हो
सरक कर चांद
उतर आया छत पर
रात भर
सुनता रहा
औऱ नापता रहा
सपनों से प्रेम की दूरी
फेरता रहा माथे पर उंगलियां
सपनों में उड़ा जाता है
प्रेम में बंधा जाता है---
"ज्योति खरे"