चाय पीते समय
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सुबह के कामों से फुरसत होकर अकेला बैठा एक कप काली चाय पी रहां हूं. इस तरह का अकेलापन 60 साल के बाद ही आता है,ऐसे समय में मष्तिष्क क्षमता से अधिक काम करता है, बीते हुए दिन नये दिनों से टकराते हैं औऱ हम क्या क्या सोचने समझने लगते हैं.
समझ आता है कि कौन अपना है कौन पराया है, किसने कब कितना अपमान किया, किसने कब अपना समझा, हम हमेशा सही होकर भी गलत ठहराए गए,उस समय हमने विरोध भी किया औऱ मौन रहने की हिम्मत भी जुटाई, खूब डांट डपट खाई अब सोचते हैं सही किया, अपने विरोध के जब मायने बदलने लगे और इसे सिरे से खारिज किया जाने लगे तो समझ जाना चाहिए कि कोई आपको समझ ही नहीं रहा,जीवन में यदि सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त करना हो तो कभी कभी मौन होना पड़ता है, यह मौन हमें आंतरिक ताकत देता है और हम नकारात्मक ऊर्जा से बचे रहते हैं, जो ऊर्जा हमने मौन रहकर,सहकर बचाई थी वह अब काम आ रही है, अच्छा लिखना,अच्छा पढ़ना, जीवन का मनोहारी संगीत सुनना अब अच्छा लगता है,उन दिनोँ के संघर्षों से गुजरते समय जो मित्र साथ थे या नही थे उनको अब याद करना पड़ता है.
आज हम चेतना की सतह पर खड़े होकर सुबह सुबह सूरज की पहली किरण का स्वागत करते हैं.अतीत हमारा सबसे ताकतवर मित्र होता है,यही हमारे चेतन मन को शक्तिशाली बनाता है, जिसके बल पर हम अब जीवन जीने की कला और संघर्षों से लड़ने की तमीज सीख पाएं है. हम कठिन समय के दौर से गुजर रहें हैं,यह दौर जीवन मूल्यों को समझने,जात पांत,धर्म,को एक करने का दौर है,राजनीति से परे आत्मचिंतन का दौर है, बुजुर्ग पीढ़ी को सम्हालने औऱ नयी पीढ़ी को अच्छे संस्कार देने का दौर है
अरे चाय पीना तो भूल ही गया खैर चाय तो फिर पी जा सकती हैं पर इस तरह के विचार बहुत मुश्किल से पनपते है.
दौर पतझड़ का सही
उम्मीद तो हरी है--
"ज्योति खरे"