कैसी हो मेरी "अपना"
***********
बहुत बरस तक
अक्सर मिलते थे
बगीचे में
बैठकर छूते थे
एक दूसरे की कल्पनाएं
टटोलते थे एक दूसरे के दिलों में बसा प्रेम
आज भी उस बगीचे में जाकर बैठता हूं
मुठ्ठियों में भरकर
चूमता हूं यादों को
सोचता हूँ
जब तुम
हरसिंगार के पेड़ के नीचे से
गुजकर आती थीं
औऱ बैठ जाती थी
चीप के टुकड़े पर
मैँ भी बैठ जाता था तुम्हारे करीब
निकालता था फंसे हुए हरसिंगार के फूल
तुम्हारे बालों से
इस बहाने
छू लेता था तुम्हें
डूब जाता था
तुम्हारी आंखों के
मीठे पानी में
अब तुम दूर हो
बदल गयी हैं
भीतर की बेचैनियां
पहले मिलने की होती थी
अब यादों में होती हैं
भागती हुई यादों से
कहता हूं रुको
मेरी "अपना"
आती होगी
उसके बालों में फंसे
हरसिंगार के फूल निकालना हैं
जिन्हें मैँ जतन से
सहेजकर रखता हूँ
तुम अब नहीं ही मेरे पास
फिर भी
मेरे पास हो
तुम्हारे होने का अहसास
थोड़े से लम्हों के लिए ही सही
प्रेम को जिंदा रखने का
सलीका तो सिखाता है
कैसी हो मेरी "अपना"
"ज्योति खरे"