सामने वाली
बालकनी से
अभी अभी
उठा कर ले गयी है
पत्थर में लिपटा कागज
शाम ढले
छत पर आकर
अंधेरे में
खोलकर पढ़ेगी कागज
चांद
उसी समय तुम
उसके छत पर उतरना
फैला देना
दूधिया उजाला
तभी तो वह
कागज में लिखे
शब्दों को पढ़ पाएगी
फिर
शब्दों के अर्थों को
लपेटकर चुन्नी में
हंसती हुई
दौड़कर छत से उतर आएगी
मैं
अपनी बालकनी में
उसके
अभिवादन के इंतजार में
एक पांव पर खड़ा हूँ----
◆ज्योति खरे