कुछ देर
मेरे पास भी बैठ लो
धूप में
पहले जैसे
जब खनकती चूड़ियों में
समाया रहता था इंद्रधनुष
मौन हो जाती थी पायल
और तुम
अपनी हथेली में
मेरी हथेली को रख
बोने लगती थी
प्रेम के बीज
अब जब भी बैठती हो मेरे पास
धूप में
छीलती हो मटर
तोड़ती हो मैथी की भाजी
या किसती हो गाजर
मौजूदा जीवन में
खुरदुरा हो गया है
तुम्हारा प्रेम
और मेरे प्रेम में लग गयी है
फफूंद
सुनो
अपनी अपनी स्मृतियों को
बांह में भरकर सोते हैं
शायद
बोया हुआ प्रेम का बीज
सुबह अंकुरित मिले -----
"ज्योति खरे"