रविवार, अगस्त 02, 2020

सावन सोमवार औऱ मैं

वाह रे पागलपन
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तुम्हारे चमकीले खुले बाल
मेंहदी रचे हांथ
जानबूझ कर
सावनी फुहार में भींगना
हरे दुपट्टे को
नेलपॉलिश लगी उंगलियों से 
नजाकत से पकड़ना
ओढ़ना
कीचड़ में सम्हलकर चलना

यह देखने के लिए
घंटो खड़े रहते थे
सावन सोमवार के दिन
मंदिर के सामने
कितना पागलपन था उन दिनों

पागल तो तुम भी थी 
जानबूझ कर निकलती थी पास से
कि में सूंघ लूं
देह से निकलती चंदन की महक
पढ़ लूं काजल लगी
आंखों की भाषा
समझ जाऊं
लिपिस्टिक लगे होठों की मुस्कान--

आज जब
खड़ा होता हूँ
मौजूदा जीवन की सावनी फुहार में
झुलस जाता है
भीतर बसा पागलपन
जानता हूं
तुम भी झुलस जाती होगी
स्मृतियों की  
सावनी फुहार में-

वाकई पागल थे अपन दोनों-----

"ज्योति खरे"

दोस्तों के लिए दुआ

दोस्तों के लिए दुआ
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मैं बजबजाती जमीन पर खड़ा
मांग रहा हूँ 
दोस्तों के लिए दुआ

सबकी गुमशुदा हंसी
लौट आये घर
कोई भी न करे
मजाकिया सवाल 
न सुनाए बेतुके कहकहे 

मैं सबकी आँखों में 
धुंधलापन नही
सुनहरी चमक 
दुख सहने का हुनर
औऱ
सुख भोगने का सलीका 
दुश्मनों से दोस्ती हो
 
मैं मांग रहा हूँ 
तुम्हारे और मेरे भीतर 
पनप रही खामोशियों को
तोड़ने की ताकत

दोस्तो
हम सब मिलकर
सिद्ध करना चाहते है
कि
अपन पक्के दोस्त हैं----

"ज्योति खरे"