वाह रे पागलपन
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तुम्हारे चमकीले खुले बाल
मेंहदी रचे हांथ
जानबूझ कर
सावनी फुहार में भींगना
हरे दुपट्टे को
नेलपॉलिश लगी उंगलियों से
नजाकत से पकड़ना
ओढ़ना
कीचड़ में सम्हलकर चलना
यह देखने के लिए
घंटो खड़े रहते थे
सावन सोमवार के दिन
मंदिर के सामने
कितना पागलपन था उन दिनों
पागल तो तुम भी थी
जानबूझ कर निकलती थी पास से
कि में सूंघ लूं
देह से निकलती चंदन की महक
पढ़ लूं काजल लगी
आंखों की भाषा
समझ जाऊं
लिपिस्टिक लगे होठों की मुस्कान--
आज जब
खड़ा होता हूँ
मौजूदा जीवन की सावनी फुहार में
झुलस जाता है
भीतर बसा पागलपन
जानता हूं
तुम भी झुलस जाती होगी
स्मृतियों की
सावनी फुहार में-
वाकई पागल थे अपन दोनों-----
"ज्योति खरे"