छितर-बितर हो जाता है
महकने लगती है
तम्बाखू में चंदन
गायब हो जाता है
कमर का दर्द
अचानक
शहद सा चिपचिपाने लगता है
झल्लाता वातावरण
धीमी रौशनी
और धीमी हो जाती है
उलाहना और पचड़े की पुड़िया का
टूटकर बिखर जाता है
मौन संवाद
उखड़ती सांसों के बाद भी
अपने अपने अस्तित्व की
ऐंठ बनी रहती है
ताव में रख ली जाती है
पिछले जेब में पचड़े की पुड़िया
खोलकर रख दिया जाता है
उलाहने का बंडल
संबंध
किसी के
किसी से भी
कहां कायम रह पाते हैं -------
"ज्योति खरे"
चित्र--
गूगल से साभार