गुरुवार, मार्च 20, 2025

आजकल वह घर नहीं आती

आजकल वह घर नहीं आती
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चटकती धूप में 
लाती है बटोरकर तिनके
रखती है घर के सुरक्षित कोने में 
फिर बनाती है अपना शिविर घर
जन्मती है चहचहाहट
गाती है अन्नपूर्णा के भजन
देखकर आईने में अपनी सूरत
मारती है चोंच

अब भूले भटके
आँगन में बैठकर
देखती है टुकुर मुकुर
खटके की आहट सुनकर
उड़ जाती है फुर्र से

वह समझ गयी है कि
आँगन आँगन
दाना पानी के बदले
जाल बिछे हैं
हर घर में
हथियार रखे हैं

अब उसने 
फुदक फुदक कर
आना छोड़ दिया है---

◆ज्योति खरे

4 टिप्‍पणियां:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह

Sweta sinha ने कहा…

शहर के पत्थर की दीवारों, लोहे के परकोटे में अपने लिए एक टुकड़ा छत ढूँढती नन्हीं गौरैय्या कंक्रीट के जाल में उलझकर गाएब हो रही है...।
मार्मिक अभिव्यक्ति सर।
सादर प्रणाम।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार २१ मार्च २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

How do we know ने कहा…

उफ्फ़! घायल करती हुई कविता। और कुछ जीवनों का यथार्थ।

Meena sharma ने कहा…

सच में अब गौरेया को मनुष्य पर विश्वास नहीं रहा, वरना पहले तो वह मनुष्य के घर पर अपना अधिकार समझकर आती थी....