फागुन की
समेटकर बैचेनियां
दहक रहा टेसू
महुये की
दो घूंट पीकर
बहक रहा टेसू---
सुर्ख सूरज को
चिढ़ाता खिलखिलाता
प्रेम की दीवानगी का
रूतबा बताता
चूमकर धरती का माथा
चमक रहा टेसू---
गुटक कर भांग का गोला
झूमता मस्ती में
छिड़कता प्यार का उन्माद
बस्ती बस्ती में
लालिमा की ओढ़ चुनरी
चहक रहा टेसू--
जीवन के बियावान में
पलता रहा
पत्तलों की शक्ल में
ढ़लता रहा
आंसुओं के फूल बनकर
टपक रहा टेसू---
"ज्योति खरे"