किससे पूछें किसका गांव
आधी धूप और आधी छांव
जंगलों में ढूंढ रहे
प्रणय का फासला
अंदर ही अंदर
घाव रहे तिलमिला
सड़कों की दूरियां
पास नहीं आती हैं
अपनी तो आंतें
घास नहीं खाती हैं
जीने की ललक ढूंढ रही ठांव--
अपहरित हो गयी
खुद ही की चाह
कौन जाने कितने
गिनना है माह
सबके सामने है
सबकी परिस्थितियां
रह रह बदल रहा
मौसम स्थितियां
दिखते नहीं हैं अपने पांव--
मांग रहे सन्नाटा
करने अनुसंधान
चुप्पी फिर हो गयी
कौन बने प्रधान
उड़ रहा लाश का
बसाता धुआं
सूख गया एक
चिल्लाता कुआं
मौन झील में डूब गयी नांव
किससे पूछे किसका गांव--
◆ज्योति खरे