गुरुवार, फ़रवरी 25, 2021

बूढ़ी महिलाएं

बूढ़ी महिलाएं
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अपनी जवानी को 
गृहस्थी के 
हवन कुंड में तपाकर
सुनहरे रंग की हो चुकी
बूढ़ी महिलाएं
अपने अपने घरों से निकलकर
इकठ्ठी हो गयी हैं

गुस्से से भरी
ये बूढ़ी महिलाएं
कह रहीं हैं
जमीन से उठती
संवेदनाओं पर
ड़ाली जा रही है मिट्टी

अब हम 
जीवन भर साध के रखी 
अपनी चुप्पियों को 
तोड़ रहें हैं
डाली जा रही 
मिट्टी को हटाकर
आने वाले समय के लिए
रास्ता बना रहे हैं--

"ज्योति खरे"

सोमवार, फ़रवरी 15, 2021

प्रेम

प्रेम
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लड़कों की जीन्स के जेब में
तितिर-बितिर रखा 
लड़कियों की 
चुन्नी के छोर में 
करीने से बंधा 

दूल्हे की पगड़ी में 
कलगी के साथ खुसा
सुहागन की
काली मोतियों के बीच में फंसा
धडकते दिलों का
बीज मंत्र है प्रेम 

फूलों की सुगंध
भंवरों की जान
बसंत की मादकता
पतझर में ठूंठ सा है प्रेम 

जंगली जड़ी बूटियों का रसायन
झाड़ फूंक और सम्मोहन
के ताबीज में बंद
सूखे रोग की दवा है प्रेम 

फुटबॉल जैसा
एक गोल से
दूसरे गोल की तरफ 
जाता है
बच्चों की तरह 
उचका दिया जाता है 
आकाश की तरफ
गोद में गिरते ही
खिलखिलाने लगता है  
दरकी जमीन पर 
कोमल हरी घास
की तरह 
अंकुरित होता है  

खाली बोतलों सा लुढ़कता 
बिस्किट की तरह
चाय में डूबता
पाउच में बंद
पान की दुकान में बिकता 
च्यूइंगम की तरह
घंटों चबाया जाता है प्रेम

माँ बाप की
दवाई वाली पर्ची में लिखा
फटी जेबों में रखा रखा
भटकता रहता है प्रेम 

और अंत में
पचड़े की पुड़िया में लपेटकर 
डस्टबिन में 
फेंक दिया जाता है प्रेम---

"ज्योति खरे"

सोमवार, फ़रवरी 08, 2021

गुलाब

गुलाब
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कांटेदार तनों में
खिलते ही 
सम्मोहित कर देंने वाले 
तुम्हारे रंग
और
देह से उड़ती जादुई
सुगंध को सूंघने
भौंरों का 
लग जाता है मजमा
सुखी आंखों से
टपकने लगता है
महुए का रस

जब
तने से टूटकर 
प्रेम में सनी 
हथेलियों में तुम्हें
रख दिया जाता है

उन हथेलियों को
क्या मालूम
गुलाब की पैदाईश
बीज से नहीं 
कांटेदार कलम को
रोपकर होती है

गुलाबों के
सम्मोहन में बंधा यह प्रेम
एक दिन
सूख जाता है

प्रेम को  
गुलाब नहीं
गुलाब का 
बीज चाहिए----

"ज्योति खरे"

मंगलवार, फ़रवरी 02, 2021

बसंत तुम लौट आये हो

बसंत तुम लौट आये 
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अच्छा हुआ
इस सर्दीले वातावरण में
तुम लौट आये हो
 
सुधर जाएगी 
बर्फीले प्रेम की तासीर
मौसम की नंगी देह पर
जमने लगेगी
कुनकुनाहट 
 
लम्बे अवकाश के बाद
सांकल के भीतर से
आने लगेंगी
खुसुर-फुसुर की आवाजें
गर्म सांसों की 
सनसनाहट से 
खिसकने लगेंगी रजाई

दिनभर इतराती
धूप
चबा चबा कर 
खाएगी 
गुड़ की पट्टी
राजगिर की लैय्या  
और तिलि के लड्डू

वाह!! बसंत
कितने अच्छे हो तुम
जब भी आते हो
प्रेम में 
सुगंध भरकर चले जाते हो---

" ज्योति खरे "