आदिवासी लड़कियां
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भिनसारे उठते ही
फेरती हैं जब
घास पर
गुदना गुदी
स्नेहमयी हथेलियां
उनींदी घास भी
हो जाती है तरोताजा
लोकगीत गुनगुनाने की
आवाज़ सुनते ही
घोंसलों से पंख फटकारती
निकल आती हैं चिड़ियां
टहनियों पर बैठकर
इनसे बतियाने
मन ही मन मुस्कराती हैं
बाडी में लगी
भटकटैया,छुईमुई,कुंदरू
नाचने लगती हैं
घास पूस से बनी
बेजान गुड़ियां
जलने को मचलने लगता है
मिट्टी का रंगीन चूल्हा
जिसे ये बचपन में
खरीद कर लायीं थी
चंडी के
हाट बाजार से
इनकी गिलट की
पायलों की आहट सुनकर
सचेत हो जाता है
आले में रखा शीशा
वह जानता है
शीशे के सामने ही खड़ी होकर
ये आदिवासी लड़कियां
अपने होने के अस्तित्व को
सजते सवंरते समय
स्वीकारती हैं
इनके होने और इनके अस्तित्व के कारण
युद्ध तो आदिकाल से
हो रहा है
लेकिन
जीत तो
इन्हीं लड़कियों की ही होगी
ठीक वैसे ही , जैसे
काँटों के बीच से
रक्तिम आभा लिए
निकलती हैं
गुलाब की पंखुड़ियां-----
◆ज्योति खरे