सन्नाटे में
अपने से ही बात करते पापा
यह सोचते थे कि
कोई उनकी आवाज
नहीं सुन रहा होगा
मैं सुनता था
कांच के चटकने जैसी
ओस के टपकने जैसी
पेड़ से शाखाओं के टूटने जैसी
काले बादलों से निकलकर
बारिश की बूंदों जैसी
इन झणों में पापा
व्यक्ति नहीं
समुद्र बन जाते थे
उम्र के साथ
पापा ने अपनी दशा और
दिशा बदली
पर भीतर से नहीं बदले पापा
क्योंकि
उनके जिंदा रहने की वजह
रिश्तों के असतित्व को
बचाने की जिद थी
पापा
जीवन के किनारे खड़े होकर
नहीं सूखने देते थे
कामनाओं का जंगल
उड़ेलते रहते थे
अपने भीतर का
मीठा समुद्र
आंसुओं को समेटकर
अपने कुर्ते के जेब में
रखने वाले पापा
वास्तविक जीवन के हकदार थे
पापा
आज भी
दरवाजे के बाहर खड़े होकर
सांकल
खटखटाते हैं------
"ज्योति खरे"