चांद रोटियों की शक्ल में ढल गया
भूख और पेट की बहस में
भूख और पेट की बहस में
दर्द कराह कर
जंग लगे आटे के कनस्तर में समा गया
तुम्हारे खामोश शब्द
समुंदर की लहरों जैसा कांपते रहे
और एक दिन तुम
अक्टूबर की शर्मीली ठंड में
अक्टूबर की शर्मीली ठंड में
अपने दुपट्टे में बांधकर जहरीला वातावरण
उतर आयी थी
शरद का चाँद बनकर
मेरी खपरीली छत पर
# ज्योति खरे
चित्र--- गूगल से साभार