समर्थक परजीवी हो रहें हैं
सड़क पर कोलाहल बो रहें हैं
शिकायतें द्वार पर टंगी हैं
अफसर सलीके से रो रहें हैं
जश्न में डूबा समय मौन है
जनमत की थैलियां खो रहें हैं
चौखटों के पांव पड़ते थक गऐ
भदरंगे बेहरूपिये सो रहें हैं
घाट पर धुलने गई है व्यवस्था
आँख से बलात्कार हो रहें हैं----
"ज्योति खरे"