राह देखते रहे
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राह देखते रहे उम्र भर
क्षण-क्षण घडियां
घड़ी-घड़ी दिन
दिन-दिन माह बरस बीते
आंखों के सागर रीते--
चढ़ आईं गंगा की लहरें
मुरझाया रमुआ का चेहरा
होंठों से अब
गयी हंसी सब
प्राण सुआ है सहमा-ठहरा
सुबह,दुपहरी,शामें
गिनगिन
फटा हुआ यूं अम्बर सीते--
सुख के आने की पदचापें
सुनते-सुनते सुबह हो गयी
मुई अबोध बालिका जैसी
रोते-रोते आंख सो गयी
अपने दुश्मन
हुए आप ही
अपनों ने ही किये फजीते--
धोखेबाज खुश्बुओं के वृत
केंद्र बदबुओं से शासित है
नाटक-त्राटक,चढ़ा मुखौटा
रीति-नीति हर आयातित है
भागें कहां,
खडे सिर दुर्दिन
पड़ा फूंस है, लगे पलीते--
◆ज्योति खरे