गरजता, धड़धड़ाता
अपनी उत्तेजनाओं को बरसाता
चला जाता है-----
चला जाता है-----
देखकर खरोंची देह
कराहती,सिसकती
कराहती,सिसकती
मासूम धूप
उंगलियां चटकाती
दे रही जी भर कर गाली
मादरजात
कलमुंहे बादल
कलमुंहे बादल
टपकाकर चले गये
काली बूंदें -----
बरसा लो
अपने भीतर का
कसैला चिपचिपा पानी
नियम के विरुद्ध जाने का परिणाम
आज नहीं तो कल
भुगतना पड़ेगा------
नदारत हो जायेगी जिस दिन ये धूप
धरती पर जिया जा रहा बेहतर जीवन
अंधेरों की तहो में
समा जायेगा
बादल
बूंद बूंद बरसने
तरस जायेगा-------
"ज्योति खरे"