अब मैं उड़ सकूंगा
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दिन बीता,शाम बीती
रात देह पर डालकर
अंधकार की चादर
चली गयी
रात को क्या पता
आंखों में नींद
पलकों के भीतर लेट गयी
या पलकों को छूकर चली गयी
तिथि बदली
सिंदूरी सुबह ने
दस्तक दी
और एक जुमला जड़कर
चली गयी
कि,लग जाओ काम पर
दिनभर कई बार
फैलाता हूं अपनी हथेलियों को
बेहतर गुजरे दिन की दुआ
मांगने नहीं
धूल से सने पसीने को
पोंछने के लिए
और उसके लिए
जिसके बिना
अधूरा है
जीवन का चक्र
चटकीली धूप को चीरता राहत भरी ठंडी हवा के साथ
किसी फड़फड़ाते परिंदे
का पंख
हथेली की तरफ आया
यह टूटा पंख
आया है प्रेम को
खुले आसमान में उड़ाने की
कला सिखाने
अब मैं उड़ सकूंगा
पंख में लिपटे प्रेम को
आशाओं की पीठ पर बांधकर
जीवन जीने के चक्र को
पूरा करने---
◆ज्योति खरे