पीठ पर सूरज बंधा
पेट बिलकुल खाली
कपकपाते हाथों से
बजती नहीं ताली--
आँख का काजल मिटा
मांग का सिंदूर
थरथराती देह लुटना
रॊज का दस्तूर
दरवाजों पर हो रही
आँख से दलाली--
जानते हैं इस बात को
वक्ष में फोड़ा हुआ
तरस इनकी देखिये
वह अंग छोड़ा हुआ
रोटी नुमा चाँद भी
अब दे रहा है गाली--
कांख कर कहा उसने
लोग पूछे यह कौन है
देह भी चलती बनी
सांस भी अब मौन है
चल दिये कांधे कहां
घर हो गया खाली--
"ज्योति खरे"