शनिवार, जनवरी 12, 2019

वक्ष में फोड़ा हुआ

पीठ पर सूरज बंधा
पेट बिलकुल खाली
कपकपाते हाथों से
बजती नहीं ताली--

आँख का काजल मिटा
मांग का सिंदूर
थरथराती देह लुटना
रॊज का दस्तूर

दरवाजों पर हो रही
आँख से दलाली--

जानते हैं इस बात को
वक्ष में फोड़ा हुआ
तरस इनकी देखिये
वह अंग छोड़ा हुआ

रोटी नुमा चाँद भी
अब दे रहा है गाली--

कांख कर कहा उसने
लोग पूछे यह कौन है
देह भी चलती बनी
सांस भी अब मौन है

चल दिये कांधे कहां
घर हो गया खाली--

"ज्योति खरे"

6 टिप्‍पणियां:

Sweta sinha ने कहा…

जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
३० मार्च २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

अदभुद

शुभा ने कहा…

वाह!बेहतरीन सृजन ज्योति जी ।

मन की वीणा ने कहा…

गजब!!
निशब्द आदरणीय।

Kamini Sinha ने कहा…

मार्मिक सृजन सर ,सादर नमन आपको

kuldeep thakur ने कहा…

नमस्ते.....
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की ये रचना लिंक की गयी है......
दिनांक 01/05/2022 को.......
पांच लिंकों का आनंद पर....
आप भी अवश्य पधारें....