पीठ पर सूरज बंधा
पेट बिलकुल खाली
कपकपाते हाथों से
बजती नहीं ताली--
आँख का काजल मिटा
मांग का सिंदूर
थरथराती देह लुटना
रॊज का दस्तूर
दरवाजों पर हो रही
आँख से दलाली--
जानते हैं इस बात को
वक्ष में फोड़ा हुआ
तरस इनकी देखिये
वह अंग छोड़ा हुआ
रोटी नुमा चाँद भी
अब दे रहा है गाली--
कांख कर कहा उसने
लोग पूछे यह कौन है
देह भी चलती बनी
सांस भी अब मौन है
चल दिये कांधे कहां
घर हो गया खाली--
"ज्योति खरे"
6 टिप्पणियां:
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
३० मार्च २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
अदभुद
वाह!बेहतरीन सृजन ज्योति जी ।
गजब!!
निशब्द आदरणीय।
मार्मिक सृजन सर ,सादर नमन आपको
नमस्ते.....
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की ये रचना लिंक की गयी है......
दिनांक 01/05/2022 को.......
पांच लिंकों का आनंद पर....
आप भी अवश्य पधारें....
एक टिप्पणी भेजें