सींचकर आंख की नमी से
रखती है तरोताजा
अपने रंगीन फूल
संवारती है
टूटे आईने में देखकर
कई कई आंखों से
खरोंचा गया चेहरा
जानती है
सुंदर फूल
खिले ही अच्छे लगते हैं
मंदिर की सीढियां
उतरते चढ़ते
मनोकामनाओं की फूंक मारते
प्रेम के पत्तों में लपेटकर
बेच देती है
अपने फूल
भरती है राहत की सांस
चढ़ा देती है
बचा हुआ आखिरी फूल
कि शायद कोई देवता
चुन ले
कांटों में खिला फूल
खींच दे हाथ में
सुगंधित प्यार की लकीर
मुरझाये फूल में
जान लौट आयेगी-------
"ज्योति खरे"