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पिता
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अंधेरों को चीरते
सन्नाटे में अपने से ही बात करते
पिता
यह सोचते थे कि
उनकी आवाज़
कोई नहीं सुन रहा होगा
मैं सुनता था
कांच के चटकने जैसी
ओस के टपकने जैसी
शाखाओं के टूटने जैसी
काले बादलों के बीच में से निकलकर
बरसती बूंदों जैसी
इन क्षणों में पिता
व्यक्ति नहीं
समुंदर बन जाते थे
उम्र के साथ
बदलते रहे पिता
पर भीतर से कभी नहीं बदले पिता
क्योंकि
रिश्तों के अस्तित्व को
बचाने की ज़िद
उनके जिंदा रहने की वजह थी
पिता
जीवन के किनारे खड़े होकर
नहीं सूखने देते थे
कामनाओं का जंगल
उड़ेलते रहते थे
अपने भीतर का
मीठा समुंदर
आंसुओं को समेटकर
अपने कुर्ते के ज़ेब में
रखने वाले
पिता
अमरत्व के वास्तविक
हक़दार थे
पिता
आज भी
दरवाजे के बाहर खड़े होकर
सांकल
खटखटाते हैं----
◆ज्योति खरे