बुधवार, जून 06, 2018

विकलांग

निकले थे
गमझे में कुछ जरुरी सामान बांध कर  
किसी पुराने पेड़ के नीचे बैठकर
बीनकर लाये हुए कंडों को सुलगाकर
गक्क्ड़ भरता बनायेंगे
तपती दोपहर की छाँव में बैठकर
भरपेट खायेंगे

एक हरे और बूढ़े पेड़ की तलाश में
विकलांग पेड़ों के पास से गुजरते
भटकते रहे

सोचा हुआ कहाँ पूरा हो पाता है

सच तो यह है कि
हमने
घर के भीतर से
निकलने और लौटने का रास्ता
अपनों को ही काट कर बनाया है ----

"ज्योति खरे"

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