रिक्शे वाला
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मैं न प्रेमी हूं
न आशिक हूं
न मंजनू हूं
न दीवाना हूं
मेरा काम है
सुबह से सड़कोँ पर
मनुष्य की मनुष्यता को ढ़ोना
रोज कमाना
रोज खाना
शाम को बैठ जाता हूँ
शहर की सूखती नदी के किनारे
करता हूँ नदी से ढेर सारी बातेँ
समझाता हूं उसे
बहती रहो
तुम इस सदी में तो नहीं सूखोगी
क्योंकि, तुम बहाकर ले जाती हो दुख
और दिनभर की जहरीली बातेँ.
सोता हूँ खुले आसमान के नीचे
देखता हूँ सपनीले सपने
सपने मेँ तलाशता हूँ
शायद कभी कोई मिल जाए अपना
यदि किसी मेँ जीवित हो थोड़ी सी भी संवेदना और हो मुझसे मिलने की ललक
तो किसी भी चौराहे पर चले आना
मेरी पहचान है
रिक्शे वाला
आटो के इस दौर में
मुझे कम लोग पहचानते हैँ
अगर पहचान जाओ
तो महरबानी आपकी
कभी कभी
लोग आते हैं
प्रेम भरी बातें करतें हैं
महगाई के इस दौर मेँ भी
मैं प्रेम के धोके में फंस जाता हूं
उनकी बातों में उलझ जाता ह़ू
क्योंकि
मोलभाव करके ही
मेरी पीठ पर बैठकर लोग
गंतव्य की ओर
जाना पसंद करते हैं ---
"ज्योति खरे "