गुरुवार, जनवरी 17, 2013

गंगा तुम भी पवित्र हो जाओ--------

गंगा की छाती पर
भर गया महाकुंभ
महाकुंभ में बस गई
कई कई बस्तियां
बस्तियों में जुट रही हस्तियां------

वह जो उजाड़ते आये हैं
निरंतर,लगातार,हरदम
कई कई अधबनी बस्तियां
बस चुकी बस्तियां
बसने को आतुर बस्तियां---------

अरकाटीपन,बनावटीपन
चिन्तक की चिंता
तरह तरह के गुरु मंत्र
टांग दी गयी हैं
छलकपट की दुकानों पर
आध्यात्म की तख्तियां-------

हिमालय की कंदराओं से निकलकर
आ गये हैं नागा बाबा
देह पर जमी हुई
दीमक छुड़ाने
चमकने लगे हैं
जंग लगे हथियार अखाड़ों में-------

जारी है
पवित्र होने का संघर्ष-------

गंगा
बहा रही है अपने भीतर
पूजा के सूखे फूल
जले हुये मनुष्य की
अधजली अस्थियां
कचड़ा,गंदगी
थक गयी है
पापियों के पाप धोते-धोते------

कर्ज की गठरी में बंधा
खिचड़ी,तिल,चेवडा
बह रहा है गंगा में
चुपड़ा जा रहा है
उन्नत ललाट पर
नकली चंदन
संतों की भीड़ में लुट रही है
आम आदमी की अस्मिता-------

गंगा
पापियों के पाप नहीं
पापियों को बहा ले जाओ
एकाध बार अपने में ही डूबकर
स्वयं पवित्र हो जाओ----------

"ज्योति खरे"


  
 
 
 
 

 

5 टिप्‍पणियां:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

यह भीड़ .......किस हेतु पापनाशिनी गंगा ?
बिना स्वीकार किये, बिना पश्चाताप
अगले कोहराम के लिए
क्या तुम साबुन की तरह कलुष मन को धो सकोगी
..........गंगा तुम अदृश्य हो जाओ

vandana gupta ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (18-1-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!

Saras ने कहा…

गंगा बेचारी कितने पाप धोएगी ......कहीं तो अंत होता नज़र नहीं आता .....उत्कृष्ट प्रस्तुति !

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

बहुत कुछ सोंचने पर विवश करती सटीक सामयिक अभिव्यक्ति...

संजय भास्‍कर ने कहा…

... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।