नहीं जलाया कंडे का अलाव
नहीं बनाया गक्कड़ भरता
नहीं बनाये मैथी के लड्डू
नहीं बनाई गुड़ की पट्टी
अम्मा ने इस बार-----
कड़कड़ाती ठंड में भी
नहीं रखी खटिया के पास
आगी की गुरसी
अम्मा ने इस बार------
नहीं गाये
रजाई में दुबककर
खनकदार हंसी के साथ
लोकगीत
नहीं जा रही जल चढाने
खेरमाई
नहीं पढ़ रही
रामचरित मानस-----
जब कभी गुस्सा होती थी अम्मा
छिड़क देती थीं पिताजी को
ठीक उसी तरह
छिड़क रहीं हैं मुझे
अम्मा इस बार-------
मोतियाबिंद वाली आंखों से
टपकते पानी के बावजूद
बस पढ़ रहीं हैं प्रतिदिन
घंटों अखबार
अम्मा इस बार------
दिनभर बड़बड़ाती हैं
अलाव जैसा जल रहा है जीवन
भरते के भटे जैसी
भुंज रही है अस्मिता
जमीन की सतहों से
उठ रही लहरों पर
लिख रही है संवेदनायें
घर घर मातम-----
रोते हुये गुस्से में
कह रहीं हैं अम्मा
यह मेरी त्रासदी है
कि
मैने पुरुष को जन्म दिया
वह जानवर बन गया-------
नहीं खाऊँगी
तुम्हारे हाथ से दवाई
नहीं पियूंगी
तुम्हारे हाथ का पानी
तुम मर गये हो
मेरे लिये
इस बार,हर बार---------
"ज्योति खरे"
(उंगलियां कांपती क्यों हैं-------से)
4 टिप्पणियां:
सर से पाँव तक झंझोड़ गयी आपकी रचना ....
वाह,कमाल की रचना
अम्मा की तरह ही हर नारी के मन में आग धधक रही ही .... बहुत संवेदनशील रचना
रोते हुये गुस्से में
कह रहीं हैं अम्मा
यह मेरी त्रासदी है
कि
मैने पुरुष को जन्म दिया
वह जानवर बन गया------बहुत सही कहा माँ ने
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