रविवार, अगस्त 02, 2020

सावन सोमवार औऱ मैं

वाह रे पागलपन
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तुम्हारे चमकीले खुले बाल
मेंहदी रचे हांथ
जानबूझ कर
सावनी फुहार में भींगना
हरे दुपट्टे को
नेलपॉलिश लगी उंगलियों से 
नजाकत से पकड़ना
ओढ़ना
कीचड़ में सम्हलकर चलना

यह देखने के लिए
घंटो खड़े रहते थे
सावन सोमवार के दिन
मंदिर के सामने
कितना पागलपन था उन दिनों

पागल तो तुम भी थी 
जानबूझ कर निकलती थी पास से
कि में सूंघ लूं
देह से निकलती चंदन की महक
पढ़ लूं काजल लगी
आंखों की भाषा
समझ जाऊं
लिपिस्टिक लगे होठों की मुस्कान--

आज जब
खड़ा होता हूँ
मौजूदा जीवन की सावनी फुहार में
झुलस जाता है
भीतर बसा पागलपन
जानता हूं
तुम भी झुलस जाती होगी
स्मृतियों की  
सावनी फुहार में-

वाकई पागल थे अपन दोनों-----

"ज्योति खरे"

4 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (04-08-2020) को   "अयोध्या जा पायेंगे तो श्रीरामचरितमानस का पाठ करें"  (चर्चा अंक-3783)    पर भी होगी। 
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
सादर...! 
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

शुभा ने कहा…

वाह!अद्भुत !

Anuradha chauhan ने कहा…

वाह!! बेहतरीन रचना आदरणीय

Rakesh ने कहा…

लाजवाब