रविवार, अगस्त 23, 2020

नदी

सुबह
तुम जब
सिरहाने बैठकर 
फेरकर माथे पर उंगलियां
मुझे जगाती हो

मैँ 
तुम्हारी तरह
नदी बन जाती हूँ
दिनभर 
चमकती,इतराती,लहराती हूं---

"ज्योति खरे"

6 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

अपनों का अपनापन मिले तो क्यों न मन चमके, इतराये, लहराए
बहुत सुन्दर

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

वाह

Kamini Sinha ने कहा…

सादर नमस्कार ,

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25 -8 -2020 ) को "उगने लगे बबूल" (चर्चा अंक-3804) पर भी होगी,आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुन्दर और सार्थक।

शुभा ने कहा…

वाह!बहुत खूब ज्योति जी ।

Anuradha chauhan ने कहा…

बहुत सुंदर।