मंगलवार, अप्रैल 27, 2021

गुहार

गुहार
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गालियां देता मन
दहशत भरा माहौल
चुप्पियां दरवाजा 
बंद कर रहीं 
खिड़कियाँ रहीं खोल 

थर्मामीटर नाप रहा
शहर का बुखार
सिसकियां लगा रहीं
जिंदा रहने की गुहार
आंकड़ों के खेल में
आदमी के जिस्म का
क्या मोल

राहत के नाम का
पीट रहे डिंडोरा
उम्मीदों का कागज
कोरा का कोरा
शामयाने में हो रहीं 
तार्किक बातें
सड़कों में बज रहा
उल्टा ढोल---

"ज्योति खरे"

सोमवार, अप्रैल 19, 2021

चालीस घंटे

चालीस घंटे
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अपने होने 
और अपने जीने की
उम्मीद को
छाती में पकड़े पिता
ऑक्सीजन न मिल पाने की वजह से
अस्पताल में अकेले लेटे 
कराह रहे हैं

मेरे और पिता के बीच हुए सांत्वना भरे संवाद
धीरे धीरे गूंगे होते जा रहे हैं
पहली बार आभास हुआ
कि,मेरे भीतर का बच्चा
आदमी बन रहा है
मैं चीखता रहा उनके पास 
रहने के लिए
लेकिन विवशताओं ने 
मेरी चीख को अनसुना कर
बाहर ढकेल दिया 

मैं पिता का 
परिचय पत्र,राशनकार्ड,आधारकार्ड 
और उनका चश्मा पकड़े
बाहर पड़ी 
सरकारी टूटी बेंच पर बैठा 
देखता रहा उन लोगों को 
जो मेरे पिता की तरह
एम्बुलेंस से उतारकर 
अस्पताल के अंदर ले जाए जा रहें हैं

पूरी रात बेंच पर बैठा सोचता रहा
पास आती मृत्यु को देखकर
फ्लास्क में डली मछलियों की तरह
फड़फड़ा रहे होंगे पिता
इस कशमकश में 
बहुत कुछ मथ रहा होगा
उनके अंदर
और टूटकर बिखर रहे होंगे
भविष्य के सपने

सुबह
बरामदे में पड़ी 
लाशों को देखकर
पूरा शरीर कांपने लगा
मर्मान्तक पीड़ाओं से भरी आवाज़ें
अस्पताल की दीवारों पर 
सर पटकने लगीं
मेरे हिस्से के आसमान से 
सूरज टूटकर नीचे गिर पड़ा

लाशें शमशान ले जाने के लिए
एम्बुलेंस में डाली जाने लगी
इनमें मेरे पिता भी हैं

सत्ताईस नम्बर का टोकन लिए 
शमशान घाट में लगी लंबी कतार में खड़ा हूं
पिता की राख को घर ले जाने के लिए

एक बार मैंने पिता से कहा था
आपने मुझे अपने कंधे पर बैठाकर
दुनियां दिखायी
आसमान छूना सिखाया
एक दिन आपको भी
अपने कंधे पर बैठाऊंगा
उन्होंने हंसेते हुए कहा था
पिता कभी पुत्र के कंधे पर नहीं बैठते
वे हाँथ रखकर 
विश्वास पैदा करते हैं
कि, पुत्र अपने हिस्से का बोझ
खुद उठा सके

पिता सही कहते थे
मैं उनको अपने कंधे पर नहीं बैठा सका

पिता कोरोना से नहीं मरे
उन्हें अव्यवस्थाओं ने उम्र से पहले ही मार डाला 

चालीस घंटे बाद
उनको लेकर घर ले जा रहा हूँ

मां
थैले में रखे पिता को देखकर
पछाड़ खाकर देहरी में ही गिर जायेंगी

पिता अब कभी घर के अंदर नहीं  आयेंगे----

"ज्योति खरे"

रविवार, अप्रैल 11, 2021

आम आदमी

आम आदमी
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अपने आप से
जूझता 
छली जा रही 
घटनाओं से बचता
घिसट रहा है
कचरे से भरे बोरे की तरह
समय की तपती 
काली जमीन पर

वह 
आसमान में टंगे
सूरज को 
देखकर भी डर जाता है
कि,कहीं टूटकर
उसके ऊपर न गिर पड़े

दिनभर की थकान
पसीने में लिपटी दहशत
और अधमरे सपनों को
खाली जेब में रखे
लौट आता है
घर

गुमशुदा लोगों की सूची में
अपना नाम ढूंढकर--

◆ज्योति खरे◆

शनिवार, अप्रैल 03, 2021

प्रेम के गणित में

प्रेम के गणित में
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गांव के
इकलौते 
तालाब के किनारे बैठकर
जब तुम मेरा नाम लेकर
फेंकते थे कंकड़
पानी की हिलोरों के संग
डूब जाया करती थी 
मैं
बहुत गहरे तक
तुम्हारे साथ
तुम्हारे भीतर ----

सहेजकर रखे 
खतों को पढ़कर
हिसाब-किताब करते समय
कहते थे
तुम्हारी तरह
चंदन से महकते हैं
तुम्हारे शब्द ----

आज जब
यथार्थ की जमीन पर
ध्यान की मुद्रा में 
बैठती हूं तो
शून्य में
लापता हो जाते हैं
प्रेम के सारे अहसास

प्रेम के गणित में
कितने कमजोर थे 
अपन दोनों ----

"ज्योति खरे"