रविवार, अगस्त 02, 2020

दोस्तों के लिए दुआ

दोस्तों के लिए दुआ
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मैं बजबजाती जमीन पर खड़ा
मांग रहा हूँ 
दोस्तों के लिए दुआ

सबकी गुमशुदा हंसी
लौट आये घर
कोई भी न करे
मजाकिया सवाल 
न सुनाए बेतुके कहकहे 

मैं सबकी आँखों में 
धुंधलापन नही
सुनहरी चमक 
दुख सहने का हुनर
औऱ
सुख भोगने का सलीका 
दुश्मनों से दोस्ती हो
 
मैं मांग रहा हूँ 
तुम्हारे और मेरे भीतर 
पनप रही खामोशियों को
तोड़ने की ताकत

दोस्तो
हम सब मिलकर
सिद्ध करना चाहते है
कि
अपन पक्के दोस्त हैं----

"ज्योति खरे"

शुक्रवार, जुलाई 24, 2020

चाय पीते समय

चाय पीते समय
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सुबह के कामों से फुरसत होकर अकेला बैठा एक कप काली चाय पी रहां हूं. इस तरह का अकेलापन  60 साल के बाद ही आता है,ऐसे समय में मष्तिष्क क्षमता से अधिक काम करता है, बीते हुए दिन नये दिनों से टकराते हैं औऱ हम क्या क्या सोचने समझने लगते हैं.
समझ आता है कि कौन अपना है कौन पराया है, किसने कब कितना अपमान किया, किसने कब अपना समझा, हम हमेशा सही होकर भी गलत ठहराए गए,उस समय हमने विरोध भी किया औऱ मौन रहने की हिम्मत भी जुटाई, खूब डांट डपट खाई अब सोचते हैं सही किया, अपने विरोध के जब मायने बदलने लगे और इसे सिरे से खारिज किया जाने लगे तो समझ जाना चाहिए कि कोई आपको समझ ही नहीं रहा,जीवन में यदि सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त करना हो तो कभी कभी मौन होना पड़ता है, यह मौन हमें आंतरिक ताकत देता है और हम नकारात्मक ऊर्जा से बचे रहते हैं, जो ऊर्जा हमने मौन रहकर,सहकर बचाई थी वह अब काम आ रही है, अच्छा लिखना,अच्छा पढ़ना, जीवन का मनोहारी संगीत सुनना अब अच्छा लगता है,उन दिनोँ के संघर्षों से गुजरते समय जो मित्र साथ थे या नही थे उनको अब याद करना पड़ता है.
आज हम चेतना की सतह पर खड़े होकर सुबह सुबह सूरज की पहली किरण का स्वागत करते हैं.अतीत हमारा सबसे ताकतवर मित्र होता है,यही हमारे चेतन मन को शक्तिशाली बनाता है, जिसके बल पर हम अब जीवन जीने की कला और संघर्षों से लड़ने की तमीज सीख पाएं है.                                   हम कठिन समय के दौर से गुजर रहें हैं,यह दौर जीवन मूल्यों को समझने,जात पांत,धर्म,को एक करने का दौर है,राजनीति से परे आत्मचिंतन का दौर है, बुजुर्ग पीढ़ी को सम्हालने औऱ नयी पीढ़ी को अच्छे संस्कार देने का दौर है
अरे चाय पीना तो भूल ही गया खैर चाय तो फिर पी जा सकती हैं पर इस तरह के विचार बहुत मुश्किल से पनपते है.
दौर पतझड़ का सही
उम्मीद तो हरी है--

"ज्योति खरे"

गुरुवार, जुलाई 02, 2020

कोहरे के बाद धूप निकलेगी

लघु कथा
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कोहरे के बाद धूप निकलेगी
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सिवनी जाने वाली बस अपने निर्धारित समय से बीस मिनट पहले
ही दीनदयाल बस स्टेंड में लग गयी.
यात्री अपनी अपनी सीटों पर बैठने के लिए चढ़ने लगे, मैं भी अपनी सीट पर जाकर बैठ गया, कुछ देर बाद बस कोलतार की सड़क पर दौड़ने लगी. 
स्वाति से मेरी पहली मुलाकात बस में ही हुई थी, वह बालाघाट जा रही थी और मैं छिंदवाड़ा, बातों का सिलसिला चला उसने बताया कि मेरे पति कालेज में प्रोफेसर हैं, मैं उन्हें सर कहती हूं, पिछले साल ही हमारी शादी हुई है.
बातों के कई दौर चले और हम दोंनो फेसबुक मित्र भी बन गये मोबाइल नम्बरों का आदान प्रदान भी हो गया.
वह सिवनी उतर गयी क्योंकि उसे दूसरी बस पकड़कर बालाघाट जाना था, मैं छिंदवाड़ा पहुंच गया.

कई दिनों तक स्वाति की याद बनी रही उसकी सुंदर छवि आंखों के सामने तैरती रही, फेसबुक में एक दूसरों की पोस्टों में लाईक कमेंटस होते रहे और कभी कभार फोन पर भी बातें हो जाया करती, वह जब भी बात करती, मुझे उसकी हंसी बहुत अच्छी लगती थी,वह कहती आप मेरे अच्छे दोस्त हो ऐसे ही बात कर लिया करो, एक बार तो उसने सर से भी बात करवा दी
"क्या जादू किया है भाई आपने मेरी बीवी पर आपकी बहुत तारीफ करती है.

समय कब कैसे जीवन को बदलता है कोई नहीं जानता और न ही कोई समझ पाता है.
मैं कंम्पनी की तरफ से एक माह की ट्रेनिंग में हैदराबाद चला गया और वह अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गयी.

एक दिन सुबह से ही स्वाति की याद आती रही , आफिस में भी उसे लेकर मन उचाट रहा आखिरकार लंच टाईम में उसे फोन लगा ही लिया.
फोन किसी पुरुष ने रिसीव किया
मैंनें कहा "स्वाति से बात करना है"
पुरुष ने भर्रायी आवाज में कहा
" वह बात नहीं कर सकती है, आज उसके पति का गंगा पूजन है" और उसने फोन काट दिया. 
 उस दिन अपने ऊपर ही क्रोध आता रहा कि मैंने इस बीच उससे बात क्योंं नहीं कि कितना लापरवाह था मैं, लगभग एक माह बाद हिम्मत जुटाकर उससे फोन पर माफी मांगी, उसने इस शर्त पर माफ किया कि मुझसे मिलने आओ तुमसे बात करके मेरे दुख हल्के हो जायेंगे
और मैं दूसरे ही दिन बस में बैठा गया.

बस सिवनी बस स्टेंड में रुकी, उतरकर एक कप चाय पी और कुछ देर बाद बालाघाट वाली बस में बैठ गया.
वह अंतिम रात कैसी रही होगी जब स्वाति सर के पास मौन बैठी होगी
सर जितना बोले होंगे उसमें गहरे अर्थ छिपे होंगे, मौन मैं ही बहुत सारी बातें हुई होंगी,क्योंकि मौन आंतरिक भावनाओं को व्यक्त करने का सशक्त माध्यम होता है, सर के पास स्वाति की मौजूदगी और मृत्यु की निकटता होगी इस कशमकश में बहुत कुछ घटा होगा, सर ने स्वाति के आंसुओं को पोछने की कोशिश भी की होगी, स्वयं की लाचारी, मृत्यु का भय और स्वाति का भविष्य आंखों के सामने टूटकर बिखर रहे होंगे, सर बहुत समझाना चाह रहे होंगे पर रुंधे कंठ से आवाज़ कहां निकलती है.
उस रात स्वाति सर की मृत देह से लिपटकर बहुत देर तक रोती रही होगी.
पास में बैठे सज्जन ने मुझे हिलाया और कहा " भाई जी बालाघाट आ गया"
मैंने वर्तमान की उंगली पकड़ी और बस से उतर गया.
पास ही खड़े रिक्शे में बैठा और कहा पुराना पुलिस थाना चलो, पता पूंछते पूंछते उसके दरवाजे के सामने खड़ा हो गया,
दरवाजा खटखटाया, स्वाति ने दरवाजा खोला उसे देखकर दुख हुआ, सुंदर, गोरी, मुटदरी सी स्वाति दुबली और काली लग रही है.
वह मुझे देखते ही कहने लगी
" आ गये आभासी दुनियां के मित्र हो न इसिलिए इतने दिनों बाद याद किया"
ऐसा नहीं है, मैंने उसकी हथेलियों को अपनी हथेलियों में रखा और जोर से दबाकर कहा
अब कोहरे के बाद धुप निकलेगी.

"ज्योति खरे"

शनिवार, जून 20, 2020

पापा

अंधेरों को चीरते
सन्नाटे में 
अपने से ही बात करते पापा
यह सोचते थे कि
कोई उनकी आवाज 
नहीं सुन रहा होगा

मैं सुनता था

कांच के चटकने जैसी
ओस के टपकने जैसी
पेड़ से शाखाओं के टूटने जैसी
काले बादलों से निकलकर
बारिश की बूंदों जैसी
इन झणों में पापा
व्यक्ति नहीं
समुद्र बन जाते थे

उम्र के साथ 
पापा ने अपनी दशा और 
दिशा बदली
पर भीतर से नहीं बदले पापा
क्योंकि
उनके जिंदा रहने की वजह
रिश्तों के असतित्व को 
बचाने की जिद थी

पापा 
जीवन के किनारे खड़े होकर
नहीं सूखने देते थे
कामनाओं का जंगल
उड़ेलते रहते थे
अपने भीतर का
मीठा समुद्र

आंसुओं को समेटकर
अपने कुर्ते के जेब में
रखने वाले पापा
वास्तविक जीवन के हकदार थे

पापा
आज भी
दरवाजे के बाहर खड़े होकर 
सांकल
खटखटाते हैं------

"ज्योति खरे"



मंगलवार, जून 02, 2020

फिरोजी चुन्नी

बहुत देर से अंकिता दीवाल पर छिपकली के रेंगने और चालाकी से कीड़े को पकड़ने का संघर्ष देख रही है. छिपकली की आंखें कितनी तेज और खतरनाक होती हैं, कीड़े का साहस और बचने का तरीका भी तो किसी खतरनाक खिलाड़ी से कम नहीं होता है.
यकायक छिपकली कीड़े को पकड़ते पकड़ते अंकिता के सामने पट्ट से गिर पड़ी, वह सहम सी गयी और उसके चेहरे पर घबड़ाहट की लकीरें खिंच आयीं. वह जब तक संयत होती छिपकली दीवाल पर फिर से रेंगने लगी.
ड्राईग रुम के चुप्पी भरे माहौल में बिलकुल अकेली अंकिता सोफे पर एक गहरी सांस लेते हुए बैठ गयी, ऐसा नहीं है कि वह पहली बार अकेली है, उसे तो दो बरस हो गये हैं इस शहर में अकले रहते हुए और अपने कमरे में छिपकली और कीड़ो के संघर्ष को देखते हुए.
यह संघर्ष सिर्फ छिपकली और कीड़ो का नहीं हैं, इस तरह का संघर्ष उसका अपना भी तो रहा है, कम उम्र में मां बाप का गुजर जाना, बड़े भाई का विवाह करके बदल जाना जिस मोहल्ले में रहती थी वहां लोगों के ताने कि पढ़ती ही रहेगी या कभी विवाह करेगी, वह कैसे समझाती कि भाई  को मेरी चिंता हो तब न विवाह हो, यहां तो भाई को पड़ी है कि यह घर से कब भाग जाए.अनगिनत परेशानियों से जूझते, अपमान का चांटा सहते पढ़ाई पूरी की, बुरे समय के दौर से निकलकर सुख का रास्ता तय करने के लिए.
लेकिन आज भी अपने आप से ऐसा ही लड़ रही है, जैसा छिपकली और  कीड़े लड़ते हैं.
इस नीरस और उलझे माहौल में केवल अंकिता की सांसों की आवाज आ रही है.
वह सोफे से उठकर खिड़की के पास चली आयी, बाहर देखा सड़क पर सन्नाटों का अहसास पसरा पड़ा है.
यह वही सड़क है जिस पर चलकर वह अपना शहर छोडकर यहां प्राईवेट कालेज में पढ़ाने आयी है.
अंकिता रोज कालेज जाती और लौट आती , उसके दिमाग में यह बात हमेशा घूमती रहती है कि ,क्या सोचकर नौकरी स्वीकारी थी और क्या हो रहा है.
वह यह इस नौकरी में अपने को व्यस्त रखना चाहती थी और मन में दबी अपनी चित्रकला को कागज में उकेर कर फिर से रंग भरना चाहती है, लेकिन पुरानी यादें उसे परेशान  किए हुए हैं, कुछ नया करने का मन ही नहीं होता.
" सब बकवास है " वह बुदबुदाते हुए खिड़की पर रखी कुहनी को साफ करते हुए सोफे पर बैठ गयी.
आज अविनाश आने वाला है, परसों उसका फोन आया था, वह क्यों आ रहा है मेरे लाख पूछने पर उसने  नहीं बताया बस बातों को घुमाता रहा.
वह आम टिपिकल लड़कों से कुछ अलग ही सोच का लड़का है, हम दोनों कालेज में साथ पढ़ते थे. मजाक मजाक में बहुत गहरी बातें किया करता था लेकिन भीतर से बहुत गंभीर रहता, ऐसा मुझे महसूस होता था, मुझे उससे बात करना बहुत अच्छा लगता था, शायद उसे भी मुझसे बात करना अच्छा लगता हो, तभी तो वह मेरे बनाये चित्रों को गंभीरता से देखता था और अपनी राय भी देता था. यह वह दौर था जब हम दोनों कालेज से छूटने के बाद पास वाले बगीचे में बैठकर ढेर सारी बातें किया करते थे.वह अक्सर मुझसे पूछता था कि "तुम्हें कौन सा रंग पसंद है" मैं कई रंग बताती थी वह खीझ जाता, कहता "कोई एक रंग बताओ" 
स्मृतियां आकाश में बहुत महीन धागो से टंगी तारो जैसी होती हैं जो कभी टूटकर नहीं गिरती.
अविनाश के आने से अंकिता बहुत खुश, पर भीतर ही भीतर खीझ भी रही है, जब दो बरस से उसने मेरी कोई खबर नहीं ली, फिर अब क्यों आ रहा है.
वह उससे लड़ने का पूरा मूड बना चुकी है.
अंकिता किचन से चाय बनाकर ले आयी और चुसकियां लेते फिर से सोचने लगी और खिलखिलाकर हंसने लगी, काश! उन दिनों मैंने अपने भीतर पनपती प्रेम की झुरझुरी को मन में दबाया न होता, 
कुछ ईशारा तो किया होता, मैंने तो उससे यह भी कभी नहीं बताया कि मुझे फिरोजी रंग पसंद है.
अविनाश ने भी तो कभी नहीं कहा न कोई भी संकेत दिया, जिसे मैं समझ पाती.
खैर !
वह अपने वर्तमान में लौट आयी,  
चाय को एक ही घूंट में खत्म किया और अविनाश को लेने स्टेशन जाने की तैयारी करने लगी.
वह स्टेशन ट्रेन आने से पहले पहुंच गयी, ट्रेन समय से ही आ गयी.
अंकिता उसे दूर से देखते ही पहचान गयी, दौड़कर अविनाश के पास आयी और हाथ पकड़कर बोली, तुम आ गये, उसने कहा "तूम्हारे सामने खड़ा हूं"
अविनाश ने अपने बैग से एक पैकेट निकालकर अंकिता को देते हुए कहा, मम्मी ने तुम्हारे लिए भेजा है, खोलकर देख लो"
अंकिता ने पैकैट खोला 
अरे वाह "फिरोजी रंग की चुन्नी" और वह बहुत देर तक रोती रही--

" ज्योति खरे "

बुधवार, मई 27, 2020

बूढ़े आदमी की पर्ची

एक मित्र का फोन आया कहने लगा "तुम्हें कोई पर्ची मिली क्या"
मैंने कहा कैसी पर्ची, वो बोला " जब मिलेगी तो पढ़ना, मुझे तो मिली है पर बताऊंगा नहीं क्या लिखा है" मेरे आग्रह के बाद भी उसने नहीं बताया. बात खत्म होने के कुछ देर बाद पर्ची का ख्याल दिमाग से गायब हो गया. दो दिन बाद फिर एक मित्र का फोन आया "कोई पर्ची मिली क्या."
मौहल्ले में कुछ लोगों से पूछा तो सबने कहा पर्ची के बारे में सुना तो है पर ज्यादा जानकारी नहीं है और जिनको मिली है वे बता भी नहीं रहे कि क्या लिखा है, कहतें हैं जब मिलेगी तो पढ़ना.
कुछ दिनों बाद, भरी दोपहर में एक आवाज आयी
 " दरवाजा खोलिये" 
बाहर निकलकर देखा एक बूढ़ा आदमी खड़ा है, मैंने पूछा "कहिये" 
उसने अपने थैले में से एक पर्ची निकाली और मुझे देते हुए कहने लगा "यह आपके लिए है इसे आराम से पढ़ना  पर किसी को बताना नहीं कि इसमें क्या लिखा है, बस सोचना और समझना"
और वह चला गया.
अंदर आकर पर्ची खोली और पढ़ने लगा--
पैदा हुआ तो बाप ने चुप कराया, स्कूल गया तो मास्टर ने चुप कराया, कालेज गया तो सीनियर ने चुप कराया, नौकरी में अधिकारी, बाजार में व्यापारी, विवाह के बाद पत्नी मुझे और मैं पत्नी को चुप कराता रहा, बेटी मम्मी को और बेटा मुझे चुप कराते रहे, बहू और बेटी अपनी अपनी ससुराल में चुप, स्वतंत्रता के बाद से बड़े, मझोले और छोटे नेता चुप कराते रहे, डाक्टर, नर्स, कामवाले और पड़ोसी भी चुप कराते रहे.
जीवन भर चुप ही रहा, आप भी इस चुप्पी के शिकार होंगे, परिवार, रिश्तेदार, दोस्त, अड़ोसी,पड़ोसी सभी इस चुप्पी के तले दबे हैं.
यह चुप्पी हमारे अस्तित्व  हमारी स्वतंत्रता,हमारे अधिकरों और हमारी महत्वकांक्षाओं को नष्ट कर रही है और हम मनुष्य से जानवर में परिवर्तित हो रहें हैं.
अब समय है चुप्पी तोड़ने का, अब हमें असंख्य आवाजों के साथ चीखना होगा.
हम सब की मिलीजुली चीख काले आसमान को फाड़कर, नये सूरज का स्वागत करेगी.
एक बूढ़ा आदमी
मरने से पहले
आसमान में
प्रतिरोध की
चीख सुनना चाहता है---

"ज्योति खरे"

सोमवार, मई 25, 2020

ईद मुबारक

सुबह से 
इंतजार है 
तुम्हारे मोंगरे जैसे 
खिले चेहरे को
करीब से देखूं
ईद मुबारक 
कह दूं

पर तुम 
शीरखोरमा
मीठी सिवैंईयां
बांटने में लगी हो

मालूम है
सबसे बाद में
मेरे घर आओगी
दिनभर की 
थकान उतारोगी
बताओगी
किसने कितनी 
ईदी दी

तुम 
बिंदी नहीं लगाती हो
पर में
इस ईद में
तुम्हारे माथे पर
गुलाब की पंखुड़ी 
लगाना चाहता हूं

मुझे नहीं मालूम
तुम इसे
प्रेम भरा
बोसा समझोगी
या गुलाब की सुगंध का
कोमल अहसास
या ईदी

अब जो भी हो
प्रेम को 
जिंदा रखना है
अपन दोनों को

"ज्योति खरे"