स्नेह के आँगन में
सूरज की किरण
रखती है अपना कदम
उस समय तक
झड-पुछ जाता है समूचा घर
फटकार दिये जाते हैं
रात में बिछे चादर
बदल दिये जाते हैं
लिहाफ तकिये के------
समझाती है
साफ़ तकिये में
सर रखकर सोने से
सपने आते हैं
सकारात्मक---
फेंक देती है
डस्टबिन में रखकर
बीते हुये दिन की
उर्जा नकारात्मक------
आईने के सामने खड़ी होकर
बालों में लगाती हुई रबरबेंड
गुनगुनाती है
जीवन का मनोहारी गीत------
तेज-चौकन्ना दिमाग रखती है
नहीं देती पापा को
चांवल और आलू
जानती है इससे बढ़ती है
शुगर
टोकती है मम्मी को
की पहनों चश्मा
अच्छे से हो तैयार
बचाती है भैय्या को
पापा की डांट से--------
रिश्तों को सहेजकर रखने का
हुनर है उसके पास
दूर-दूर तक के रिश्तेदारों की
बटोरकर रखे है जन्म तारीख
भूलती नहीं है
शुभकामनायें देना--------
जागता है जब कभी
पल रहा मन के भीतर का संकल्प
कि करना है कन्यादान
टूटने लगता है
रिश्तों की बनावट का
एक-एक तार--------
नाम आंखों में
समा जाती हैं बूंदें
टपकने नहीं देता इन बूंदों को
क्या पता
यह सुख की हैं या दुःख की-------
ऐसे भावुक क्षणों में
समा जाती है मुझमें
उन दिनों की तरह
जब घंटों सीने पर लिटा
सुलता था---------
जब से सयानी हुई है
गहरी नींद में भी
चौंक जाता हूं
जब आता है ख्याल
कि कोई देख रहा है उसे
बचाने लगता हूं
बुरी नजर वालों से
कि नजर न लगे
बिटिया को------------
"ज्योति खरे"
10 टिप्पणियां:
सामयिक चिंता प्रस्तुत करती सुन्दर रचना ..
सादर ...ज्योत्स्ना शर्मा
बहुत ही सुंदर रचना ..मेरे पास शब्द नहीं तारीफ के,,,आप की रचना ने मुझे मेरे पापा की याद दिला दी..सच संवेनदना की गहराई को छूती भाव पूर्ण रचना .
बहुत ही सुंदर रचना ..मेरे पास शब्द नहीं तारीफ के,,,आप की रचना ने मुझे मेरे पापा की याद दिला दी..सच संवेनदना की गहराई को छूती भाव पूर्ण रचना .
बहुत सुन्दर रचना ..बेटियां होती ही इतनी प्यारी है
बहुत ही सुंदर एकदम समसामयिक चिंता ... स्त्रियों के प्रति सम्मान का एक सजग प्रयास ....
सामयिक विषय पर लिखी हुई भावपूर्ण सुंदर रचना
भावपूर्ण सुंदर और सामयिक रचना
सुन्दर रचना ..
भावस्पर्शी सुन्दर कविता! पिता-पुत्री का सम्बन्ध, इनसानी रिश्तों में, सर्वाधिक कोमल और नाज़ुक होता है! आज गोद में किलकारियाँ भरती बिटिया कल सयानी होती है...और उस पल से दोनों के ही मन में अनकहा, अव्यक्त-सा बहुत कुछ घुमड़ने लगता है : " नम आँखों में / समा जाती हैं बूंदें / टपकने नहीं देता उन बूंदों को / क्या पता / वे सुख की हैं या दुःख की..." पंक्तियाँ इसी उलझन को प्रकट करती हैं ! बुरी नज़र वालों से, बुरी दुनिया से, हर बुराई से अपनी प्यारी-राजदुलारी को बचाए रखने की फिक्र तो पिता की नींदों को उम्र भर चौंकाती ही रहती है ! प्रभाव छोड़ती कृति !
सुन्दर अभिव्यक्ति आपने भावों को सुन्दर रूप में प्रस्तुत किया
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