जैसे रात में पछाड़कर कलमुँहो ने
बगरा दी थी देह
बैठकर घाट पर उकडू
मांजने लगी
उबकाई खत्म होते ही
बंद करके नाक
नदी बहा तो ले जाती है रगदा
नहीं बहा पाती
हांफती,कांपती
चढ़ रही है घाट की सीढ़ियां
गूंज रही है
उसके बुदबुदाने,बड़बड़ाने की आवाज "ज्योति खरे"